मुकम्मल इश्क़ की तलबगार नहीं है आंखे
थोड़ा_थोड़ा ही सही रोज तेरे दीदार की चाहत है
मुकम्मल इश्क़ की तलबगार नहीं है आंखे
थोड़ा_थोड़ा ही सही रोज तेरे दीदार की चाहत है
एहसास करा देती है रूह, जिनकी बातें नहीं होती..!!
इश्क वो भी करते है जिनकी, मुलाकातें नहीं होती….!!!!
बयां…. से परे है तेरे
खयाल का सुकूं…..
जाने कौन सी भाषा बोलती हैं उसकी
आँखे हर लफ्ज़ कलेजे में उतर जाता है.
कैसे कहें कि हमारा तुमसे कोई रिश्ता नहीं…
आज भी तुम्हारे नाम से हमारी साँसे महक उठती हैं..!!
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है – मिर्ज़ा ग़ालिब
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया – मिर्ज़ा ग़ालिब